साहित्यकार दिनेश ध्यानी द्वारा रचित गढ़वाली कविता “सीख”

खबर शेयर करें -

सीख

ब्यटा मिन त्वैम कुछ बुन्न छाई
पण क्य ब्वन, छन्द हि नि आई
कबि त्वै थैं किताबौं म अर
कबि कम्प्यूटर परै व्यस्त पाई
म्यर मनौ उमाळ
मन मा हि रैग्याई।

ब्यटा तु ता जण्दु छै
हम गरीब घरौं का मनखि छां
बाळपन म हमुन अक्वै लारा-लत्ता
अर छक्वै गफफा तक नि पाई।

वो त पितरौं आशीष चा
अमणि हम्हरू बि बगत एै ग्याई
पण या ब्यटा बित्यां दिनौं थैं
कनक्वै बिसरणाई?

वनु बि बुल्दन बल
जु मनखी बित्यों बगत
बिसरि ग्याई
वो मनखि कि क्या ह्वाई ?

ब्यटा इनै सूण
तु परिवारौ सौब से ठुल्लु छै
त्वै पैथर ही सैर्य बात ल बणण
भूलि -भुला अर आबत मितर
सब्यों कि तिली त निभाण।

अरे हम्हरू क्य भरवसु
बुढ़ापा सरैल
अमणि छां भौळ झणी क्या ह्वा
अछांदु घाम झणी कब अछै जा।

इलै बुनौं छौं
अपणी हूण खाण कि चेतना कारा
कब तलक रैण हैंका सारा ?
सीखि ल्हेदि अपणि होश्यारी
अर उठै ले अपणी जिम्मेदारी।

ब्यटा अब वन्नु बगत रि रैग्या
जब लाटा-कालौं न बि
अपणु टैम निकाळि द्या
अरे ये जमन म ता
सपन अर चालाक मनखि बि
नि खै सकणां त ब्यटा
हम्हरि क्या बिसात चा?

अरे मेनत कैरी अर झट्ट
थामि ल्हेकि सरकारौं टंगडु
नौकरि जनि बि मील
सरकारी हो ता निभि जालु दगड़ु।
बुबा जरा-जरा कै की
मनख्योंन उन्नति काई
भितर भोरिकि छुचा पैली
कैन नि पाई।

ब्यटा म्यरू ब्वल्यूं मानि जादि
जमनु अर अपणु विस्तार देखिले
स्वीणा देखिदि अर मेनत कैरिदी
जैन गैत कस, खैरी खाई
वै न हि दुन्य म ब्यटा अपणु
मुकाम बणाई।।

जैन गैत कस, खैरी खाई
वै न हि दुन्य म ब्यटा अपणु
मुकाम बणाई।।

कविदिनेश ध्यानी
धार ओर- धार पोर। गढवाळी कविता संग्रह बिटिन।