रायवाला : प्रतीत नगर में पहली बार आयोजित हुआ भड्डू दाल-भात कार्यक्रम, अपने खान पान को बचाना और युवाओं को रूबरू कराना लक्ष्य

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रायवाला : जमीन में बैठ कर पत्तल में खाते हुए लोगों के मुंह में पाँचों अंगुलियां जा रही थी और कई लोगों के मुंह स्वाद ऐसा चढ़ा कि अंगुलिया को चाट रहे थे. ये हमारा खान पान का प्राचीन तरीका है. यही हमारी संस्कृति भी है. जो दिखी भड्डू-भात खाते हुए.

ऋषिकेश क्षेत्र के रायवाला-प्रतीत नगर इलाके में एक अनूठी पहल शुरू हुई पहली बार. रविवार को इस पहल का गवाह बना बनखंडी महादेव मंदिर प्रांगड़. यहाँ पर भड्डू-भात कार्यक्रम आयोजित हुआ था. इस सीधा सादा लक्ष्य था अपने खान पान को ज़िंदा रखा और बढ़ावा देना और वर्तमान युवा पीढ़ी को उस खान पान से रूबरू करवाना. भड्डू-दाल भात पर्वतीय क्षेत्र में बनाया जाता है काफी पुरानी डिश है. भड्डू जिस बर्तन को कहते हैं उसमें दाल बनाई जाती है और मोटा भात के साथ यह खाया जाता है. इसके खाने के कुछ नियम भी है जो लोग फॉलो कड़ाई करते हैं. मसलन, अगर पंगत में बैठे हैं लोग तो तब तक नहीं उठते जब तक अंतिम ब्यक्ति वहां पर खा नहीं लेता है. बाकायदा भड्डू भात पकाने के लिए ख़ास तौर पर पंडित (गढ़वाल में सरोला/सरोल पंडित कहते हैं) बुलाये गए थे.

भड्डू इस बर्तन को कहा जाता है

भड्डू भात का रिवाज एक नजर-
दरअसल, रिवाज की बात करें तो यह अपने आप में सम्पन्न, अनूठी और अद्भुत है. यह अपने में कई चीजों का समाए हुए है, पहाड़ (गढ़वाल और कुमाऊं) की संस्कृति और रीति-रिवाज हमेशा एक कौतूहल और शोध का विषय रहा है. हमारी संस्कृति पर कुछेक शोध जरूर हुए हैं लेकिन वह ना के बराबर. हमारी प्राचीन संस्कृति पर अभी भी गहन अध्ययन, चिंतन और शोध की जरूरत है. क्योंकि आज हम जिस समाज और भाग दौड़ की दुनिया में एक दिखावे की सी जिंदगी जी रहे हैं, उसमे हमारी आने वाली पीढ़ी पहाड़ों की कई ऐसी चीजों से अनभिज्ञ रहने वाली है. इसका कारण कोई और नहीं हम ही हैं. क्योंकि आज हम अपनी संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं. यह पहाड़ (कुमाऊं और गढ़वाल) की संस्कृति के लिए ठीक नहीं है.

पंक्तियों में भड्डू दाल भात खाते हुए ग्रामीण

एक ऐसा बर्तन जो हमारे रीति-रिवाज और संस्कृति का कभी अभिन्न अंग हुआ करता था। उस बर्तन का नाम भड्डू है. भड्डू को बनाने में बहुत चिंतन-मनन करना पड़ा होगा. ऐसी धातुओं का मिश्रण तैयार करने का विचार किया गया होगा जो अग्नि की ताप को सहन करने में सक्षम हो, जिसमें लौहा, पीतल, तांबा और कांसा (जस्ता) आदि निश्चित मात्रा में मिले होते हैं ।ऐसी धातुओं के मिश्रण को त्रिकूट कहा जाता है. चूल्हे पर चढ़ाने, उतारने के अनुरूप इसे बटलोई का आकार दिया गया ताकि लुढ़कने से बचाव हो सके अतः तला कुछ सपाट कर दिया गया. इसमें जो आग जलाने के लिए जो जगह खोदी गयी उसका अकार भी बर्तन के अनुसार ही होना चाहिए. नमक इसमें पिसा नहीं बल्कि मोटा नमक डाला जाता है. कितनी आंच देनी है और कितने समय इसका ख़ास ध्यान रखा जाता है. भड्डू से सिर्फ और सिर्फ पहाड़ों में पले बढ़े लोग और रहने वाले ही परिचित हो सकते हैं या दूर प्रवास में रहने वाले लोग जब कभी कभार अपने गांव आए होंगे तो उनका भी इससे परिचय हुआ होगा या नहीं भी, क्योंकि वर्तमान समय में गिने-चुने घरों में ये बर्तन देखने को मिलेगा. एक बार इस बर्तन में बनी दाल का स्वाद अगर आपकी जीभ चख ले तो जीवन भर वो स्वाद आप भूल नहीं सकते. इस भड्डू ने एक प्रचलित मुहावरे कि “पहाड़ों में दाल नहीं गलती है” को भी झूठा कर दिखाया है, एक बार जब दाल भड्डू पर चूल्हे पर चढ़ जाती है तो गलकर ही रहेगी और सिर्फ दाल ही नहीं शिकार, ख्वाजा-बुखणा, तोर-रंयास या किसी भी प्रकार की दाल गल जाती है. भड्डू के मुंह पर पानी भरा बर्तन को ढ़क्कन जैसा बनाकर रखा जाता है जो कि भाप को बाहर नहीं जाने देता है. चूल्हे पर चढ़ाने से पहले इसके बाहरी भाग पर चारों तरफ से गीली मिट्टी, राख से जमकर पुताई की जाती है और पुताई के बाद दाल और पानी को निश्चित मात्रा में डालकर जलते चूल्हे पर चढ़ाया जाता है.

ग्रामीणों ने मिलझुल कर भड्डू दाल भात के आयोजन को सफल बनाने में तन, मन और धन से सहयोग किया।

पहाड़ों में शादियों में भड्डू में दाल बनाई जाती थी और पंगत में बैठकर दाल और भात खाने का अपना अलग ही मजा होता था और अगर साथ में तेल में लाल भूनी मिर्च हो तो मन तृप्त हो जाता था. वर्तमान समय में चाहे हम अपने घरों की बात करें या किसी भी शादी-ब्याह या पार्टी की बात करें, तो न भड्डू में बनी दाल का स्वाद है मिलता है न वो मिठास. भीमल, बांज, खड़िक की लकड़ी को चूल्हे में झौंक दिया जाता है, जो धीरे-धीरे जलकर दाल को गला देती है.पहाड़ों में काम का बोझ हमेशा ही रहा है और खासकर खेती किसानी करने वाली महिलाएं जब अपने खेतों के काम करने जाती हैं या घास-पास लेने जाती हैं या पशुओं को दूर जंगल में चराने ले जाती हैं तो वह घर पर भड्डू में दाल चढ़ाकर जाती थी और जब वापस आती थी तो उसको दाल पकी हुई मिलती थी. इससे उनका दाल बनाने का समय भी बच जाता था और उसको स्वाद से भरपूर दाल भी खाने को मिल जाती थी. यही क्रम रात के समय का भी था रसोई के सारे काम खत्म करके सुबह की दाल रात को ही भड्डू में चढ़ा दी जाती थी, क्योंकि मिट्टी के चूल्हे में अंगारों की ताप 6 से 8 घंटे आराम से रहती है. भड्डू मांजना एक बहुत ही कष्ठसाध्य कार्य माना जाता है. पुताई के समय राख मिट्टी आग के कारण चिपक जाती है जिसे छुड़ाना आसान काम नहीं होता. कभी-कभार एक कहावत भी सुनने में आती है कि “भड्डू मंजवा दूंगा” इसीलिए ये कहावत भी बनी होगी.

गढ़वाल कुमाऊंनी महासभा के द्वारा संस्कृति के उत्थान के लिए सफल आयोजन

पहाड़ों में शादियों में भड्डू में दाल बनाई जाती थी और पंगत में बैठकर दाल और भात खाने का अपना अलग ही मजा होता था और अगर साथ में लाल भूनी मिर्च हो तो मन तृप्त हो जाता था. वर्तमान समय में चाहे हम अपने घरों की बात करें या किसी भी शादी-ब्याह या पार्टी की बात करें, तो न भड्डू में बनी दाल का स्वाद है मिलता है न वो मिठास. आजकल शादी—ब्याह में बनने वाले खाने में चाहे दाल हो या अन्य सब्जियां उनमें दुनियाभर के मसालों का प्रयोग करके उसके वास्तविक स्वाद को खो देते हैं. इन मसालों से हमारे स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. ये मसाले बदहजमी, कब्ज और एसिडिटी बिमारियों को जन्म दे रहे हैं, जो कि हमारे शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं, जबकि भड्डू में बनी दाल से कब्ज एसिडिटी होने के चांस बहुत कम होते हैं.


गांव घरों का भी हाल कुछ अच्छा नहीं है. लोगों ने देखा—देखी में मिट्टी के चूल्हे से दूरी बना ली है, आज कल गांव—देहात में भी लोग गैस के चूल्हे का ज्यादा उपयोग कर रहे हैं, क्योंकि मिट्टी के चूल्हे में खाना बनाने से बर्तनों की साफ सफाई में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जो कि लोगों को पसंद नहीं है. गैस सिलेंडर बचाने के लिए इंडक्शन बिजली से खाना बनाने वाला चूल्हा भी पहाड़ चढ़ चुका है और साथ में नॉन स्टिक बर्तन भी अपने साथ पहाड़ ले आया है. लोगों को लगता है कि इससे उनका समय भी बचेगा और गैस सिलेंडर की खपत भी कम होगी और बर्तन धोने में भी सहूलियत रहेगी. आज जब ये सब हो रहा है तो भड्डू कहां से देखने को मिलेगा. गैस चूल्हे और इंडक्शन पर भड्डू में दाल नहीं पक सकती, इसी वजह से आज की पीढ़ी भड्डू और उसमें बनने वाली दाल के स्वाद से अपरिचित है और रूचि भी ख़त्म हो चुकी है.

वर्तमान समय में बाज़ार में भड्डू की जगह प्रेशर कुकर, सौर कुकर, इलेक्ट्रिक कुकर आदि ने ले ली है. भड्डू आज की आधुनिक जीवन शैली में यदि दिखता भी है इसकी उपयोगिता ना के बराबर है और यदि कहीं दिख भी जाय तो वो सिर्फ और सिर्फ घर में बने शोकेस में एक एंटीक पीस जैसा रखा हुआ है. गढ़वाल महासभा गढ़भूमि सांस्कृतिक विकास चेरिटेबल ट्रस्ट की तरफ से इस तरह का आयोजन किया गया था. जिसकी सभी ने तारीफ की है. लोगों ने उम्मीद जताई आने वाला समय में लोग रायवाला-प्रतीत नगर आएंगे भड्डू दाल भात खाने.

उत्तराखण्ड की विरासत को संजोए रखने ,संरक्षण करने और प्रचार प्रसार करने लिए प्रयासरत है गढ़वाली और कुमाऊंनी महासभा

निवेदक रहे इसमें गढ़वाल/कुमाउँनी महासभा प्रतीत नगर एवं समस्त क्षेत्रवासी रायवाला. इसके सूत्रधारों में कैप्टेन (से.) हर्षमणि लस्याल और उनकी टीम रही. लस्याल ने बताया “दो वर्ष पहले हमने गढ़वाल कुमाउँनी महासभा का गठन किया था. ढालवाला में एक कार्यक्रम में गया तो वहां पर ऐसा भड्डू भात का कार्यक्रम आयोजित हुआ था. मुझे लगा हमें भी करना चाहिए ऐसा कुछ. फिर एक ब्यक्ति की बस की बात नहीं थी कार्यक्रम आयोजित करना. हमने महासभा का गठन किया और यह हमारा पहला प्रयास था. जो लोगों की संख्या देखकर सफल लग रहा है. लस्याल ने जानकारी दी आने वाले समय में हम वीर माधो सिंह भंडारी के विषय में एक नाट्य मंचन भी करने की कोशिश करेंगे हमारे लोगों में से ही कलाकार होंगे ताकि युवा पीढ़ी को पता लगे सके हमारे लोगों के बारे में उन्होंने हमारे लिए क्या क्या नहीं किया.”

उसके अलावा मोहन कंडवाल, मुकेश भट्ट और महसभा के अध्यक्ष बिक्रम तड़ियाल, अंजू बडोला, दर्शन सिंह नेगी, अंकित खंकरियाल, गणेश रावत, प्रेम सिंह नेगी, सुषमा तिवाड़ी,कुंवर सिंह नेगी, कुलदीप नेगी , बीना बंगवाल, कमलेश भंडारी जैसे स्तम्भ रहे जिनकी वजह से यह शानदार कार्यक्रम आयोजित हुआ. ………….