28 सालों से न्याय की तलाश में उत्तराखंडी लेकिन ना तो न्याय मिला और ना ही आंदोलनकारियों के सपनों का उत्तराखंड

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22 सालों में ऐसे उत्तराखंड की कल्पना की थी हमने, क्या ये वही उत्तराखंड है। भूल गए सब उस नारे को जिसको बोलते बोलते सीने में गोलियां खाई “मडुआ बाड़ी खाएंगे उत्तराखण्ड बनाएंगे”। उत्तराखंड पलायन की गिरफ्त में तो है ही लेकिन आज यहां हमारी बेटियां भी सुरक्षित नहीं। तीलू रोतेली की जन्म भूमि में बेटियां रौंदी जा रही है।

1 अक्टूबर की वो काली रात जो उत्तराखण्ड के इतिहास के काले पन्नो के रूप में सामने आता है। मुज्जफरनगर के रामपुर तिराहे में जो हुआ वो क्या था। इसी उत्तराखंड के लिए इतने लोगों का बलिदान दिया गया। यह दृश्य कितना संवेदनहीन रहा होगा इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अगले दिन न सिर्फ अंतराष्ट्रीय स्तर पर घटना की निंदा हुई। नृशंस हत्याकांड के जो घाव आज भी उत्तराखण्डियों के सीने पर हैं क्या वह कभी भर पाएंगे। सवाल तो यह भी है कि क्या ये वही उत्तराखण्ड है जिसके सपने राज्य आंदोलनकारियों ने देखें थे।

2 अक्टूबर 1994 यह वही दिन था जिस दिन उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की चाह में आंदोलनकारी 2 अक्टूबर गांधी जयंती के अवसर पर दिल्ली में प्रदर्शन करना चाहते थे इसलिए वह 1 अक्टूबर को राज्य के विभिन्न जगहों से दिल्ली के लिए निकल पड़े लेकिन 1 अक्टूबर की रात को जैसे ही मुजफ्फरनगर में रामपुर तिराहा पर आंदोलनकारियों की बसों को मुलायम सरकार के आदेश पर पुलिस अधिकारियों के द्वारा रोका गया।

पुलिस ने न सिर्फ लाठियां भांजकर करीब ढाई सौ लोगों को हिरासत में ले लिया बल्कि रात के अंधेरे में 42 अन्य बसों से वहां पहुंचे आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी। इस नृशंस घटना में जहां सात आंदोलनकारी शहीद हो गए वहीं 17 अन्य आंदोलनकारी गम्भीर रूप से घायल हुए। पुलिस का अत्याचार यही नहीं रूका बल्कि उन पर देवभूमि की मां बेटियों के साथ दुष्कर्म भी किया गया। पुलिस वालों ने रात के अंधेरे में महिला आंदोलनकारियों के वस्त्रों का चीरहरण किया।

आज उत्तराखंड के बंद के अवसर पर चिंतन करने की जरूरत है।अपने उत्तराखंड के लिए, अपने पहाड़ों के लिए, अपने जल, जंगल और जमीनों के लिए। पहाड़ की जवानी के लिए। माताओं के लिए बहनों के लिए। रोजी रोटी के लिए अपना देश, परिवार को छोड़ विदेशों में बस रहे है। भ्रष्टाचार शुरुवात से लेकर अब तक कहां से विकास होगा उत्तराखंड का जहां वर्षो से तैयारी कर रहे युवा को नौकरी नहीं, महिलाओं का सरकारी नौकरियों के लिए 30% आरक्षण खतरे में है। भर्ती घोटाले जो आज से नहीं शुरुवात से व्याप्त है। पर्यटन को बढ़ाने की बात की जाती है लेकिन पर्यटन के नाम पर आयाशियों का अड्डा बनता जा रहा है सपनों का उत्तराखंड । जिसकी बलि चढ़ी है अंकिता भंडारी । आज उसी आंदोलन की जरूरत है जिसे उत्तराखंड को उत्तरप्रदेश से अलग करने लिए किया गया। देवों की भूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड की संस्कृति खतरे में है। जनता मांग कर रही है भू कानून की लेकिन अभी तक जितनी भी सरकारें आई उन्होंने इस पर विचार तक नहीं किया।

उत्तराखंड तभी मजबूत बन पाएगा जब हिमाचल प्रदेश की तरह उसका अपना भू कानून होगा।


मुजफ्फरनगर रामपुर तिराहे पर शहीद हुए राज्य आंदोलनकारी:-

1) स्व० सूर्यप्रकाश थपलियाल(20), पुत्र श्री चिंतामणि थपलियाल, चौदहबीघा, मुनि की रेती, ऋषिकेश।
2) स्व० राजेश लखेड़ा(24), पुत्र श्री दर्शन सिंह लखेड़ा, अजबपुर कलां, देहरादून।
3) स्व० रविन्द्र सिंह रावत(22), पुत्र श्री कुंदन सिंह रावत, बी-20, नेहरु कालोनी, देहरादून।
4) स्व० राजेश नेगी(20), पुत्र श्री महावीर सिंह नेगी, भानिया वाला, देहरादून।
5) स्व० सतेन्द्र चौहान(16), पुत्र श्री जोध सिंह चौहान, ग्राम हरिपुर, सेलाकुईं, देहरादून।
6) स्व० गिरीश भद्री(21), पुत्र श्री वाचस्पति भद्री, अजबपुर खुर्द, देहरादून।
7) स्व० अशोक कुमारे कैशिव, पुत्र श्री शिव प्रसाद, मंदिर मार्ग, ऊखीमठ, रुद्रप्रयाग।