खबर शेयर करें -

वराह जयंती की शुभकामनाएं—
आज विघ्नहर्ता भगवान श्री गणेश जी की जयंती के साथ ही भगवान श्री हरि के वाराहअवतार की दिव्य पवित्र जयंती भी है
श्रीमद्भागवत रत्न से सम्मानित आचार्य डॉक्टर चंडी प्रसाद घिल्डियाल जी के दिव्य भागवत प्रवचन से सादर उद्धृत

द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम्।
उद्धरिष्यन्नुपादत्त यज्ञेश: सौकरं वपु:।।
(भा १/३/७)
अर्थात
दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिए समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान् ने ही रसातल में गयी हुई पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सूकर रूप ग्रहण किया।

मानस पुत्रों के द्वारा जब जगत की सृष्टि का विस्तार नहीं हुआ तो ब्रह्मा जी भगवान का चिंतन करने लगे उसी समय उनके शरीर के दो भाग हो गए जिससे स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ उनमें जो पुरुष थे वह सार्वभौम सम्राट स्वायंभुव मनु हुए और जो स्त्री थी वह महारानी सतरूपा हुई उन्होंने हाथ जोड़कर ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और कहा—-
” त्वमेकः सर्वभूतानां जन्मकृद्वृत्तिदःपिता।
अथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन वा भवेत।।”

आप प्राणियों को जन्म तथा आजीविका देने वाले पिता है आज्ञा करिए हम आपकी क्या सेवा करें ब्रह्मा जी ने कहा बेटा मनु तुम अपने ही समान गुणवान संतान उत्पन्न करो तथा धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करो और भगवान श्रीहरि की आराधना करो मनुजी ने कहा पिताजी मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूंगा परंतु आप प्रजा के रहने के लिए स्थान बताइए —–
आदेशे$हं भगवतो वर्तेयामीवसूदन।
स्थानं त्विहानुजानीहि प्रजानां मम च प्रभो।।

इस समय जीवो की निवास भूता पृथ्वी प्रलय के जल में मग्न हैं आप इसके उद्धार का प्रयत्न कीजिए ।

स्वायंभुवमनु के इस प्रकार कहने पर ब्रह्माजी विचार करने लगे पृथ्वी को तो, हिरण्याक्ष नाम का असुर रसातल में ले गया है। अब रहने के लिए कोई स्थान ही नहीं है।

तो क्या करें?

ब्रह्माजी भी चिन्तित होने लगे कि उस हिरण्याक्ष को मैंने ही वरदान दिया है, अतः मै स्वयं तो उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।

उसी समय उनकी नासिका से अंगूठे के बराबर एक वराह शिशु निकला– —
इत्यभिध्यायतो नासाविवरात्सहसानघ।
वराहतोको निरगादङ्गुष्ठ परिमाणकः।।

ब्रह्माजी चिन्ता कर ही रहे थे कि उनकी नाक से एक छोटा-सा सुअर-वराह निकला।

देखते-देखते वह छोटा-सा वराह हाथी जैसा बड़ा हो गया और वहाँ से चल पड़ा। चल कर उसने सीधे समुद्र में प्रवेश किया। समुद्र में जाकर जब वह पृथ्वी को उठकार ऊपर लाने लगता है, तो हिरण्याक्ष उसे रोकने के लिए आता है और मारने लगता हैं। लेकिन वराह भगवान पृथ्वी को पहले समुद्र से बाहर लाकर रख देते हैं, स्थापित कर देते है। और फिर उसी वराह द्वारा हिरण्याक्ष का वध होता है।
ऋषि, मुनि सब वराह भगवान की स्तुति करने लगते हैं –

जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन
त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः।
यद्रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वरा-
स्तस्मै नमः कारणसूकराय ते।।

भगवान् अजित्! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार हैं। आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपसे पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही यह सूक्ष्मरूप धारण किया है; आपको नमस्कार है।

कारण सूकर के दो अर्थ होते हैं।

एक अर्थ है—–
ये वराह रूप में- सूकर रूप में, कार्य के रूप में दिखाई तो दे रहे हैं, लेकिन ये कार्य नहीं हैं- समस्त जगत् के कारण है। तो सूकर रूप में दिखाई देते हुए भी ये जगत् के कारण हैं।

दूसरा अर्थ है——-
किसी कारण से सूकर बने हैं, ये सूकर हैं नही।

सूकर के रूप में दिखाई देते हैं, लेकिन वास्तव में ये जगत के आदि कारण है।

सब उनकी प्रशंसा करते हैं, स्तुति करते हैं।

नाक से सुअर का जन्म-प्राकट्य हुआ, ये सब क्या बातें हैं?

इसका रहस्य है—-
आकाश का गुण हैं, शब्द, वायु का स्पर्श, अग्नि का रूप, जल का रस, और पृथ्वी का तत्त्व गुण है गन्ध।

अच्छा, गन्ध का ग्रहण कैसे होता है?

नाक से ही होता है, है न?

उसके लिए दूसरा कोई उपाय नहीं हैं।

इन्द्रियों को भगवान ने बनाया ही ऐसा है कि एक-एक इन्द्रिय के द्वारा एक ही विषय का ग्रहण होता है, अन्य विषयों का नहीं। तो गन्धवती यह पृथ्वी है।

अब भगवान को यदि इस पृथ्वी का उद्धार करना हो, तो उन्हें पृथ्वी का प्रेमी बनकर आना पड़ेगा, है न?

पृथ्वी से सर्वाधिक प्रेम कौन करता है?

जरा विचार करके देखें, तो स्पष्ट हो जाता है कि सूअर पृथ्वी से सबसे ज्यादा प्रेम करता है।

उसका नाम सूकर पड़ा क्योंकि —
“सूं सूं करोति इति सूकरः”
वह सूं-सूं करता है।

उसकी गर्दन पृथ्वी की ओर ही होती है, कभी ऊपर की ओर नहीं होती।

गर्दन नीचे करके ही चलता रहता है। पृथ्वी का जो सबसे गन्दा त्याज्य अंश है, उसको भी वह अपना भक्ष्य बना लेता है। इसी से पता चलता है कि उसका पृथ्वी से कितना अधिक प्रेम है।

पृथ्वी का गुण है—-
गन्ध।

गन्ध का ग्रहण नाक से होता है।

अतः पृथ्वी का उद्धार करना हो, तो पृथ्वी का प्रेमी बनकर सुकर बनकर आना पड़ेगा इसलिए कि उसमें नाक की ही प्रधानता है।

इसीलिए यहाँ कहा ब्रह्माजी की नाक से भगवान वराह रूप में प्रकट हुए, यही दिखाने के लिए कि वे बड़े पृथ्वी प्रेमी हैं।

पृथ्वी का उद्धार वे स्वयं करेंगे,और यह भी दिखाने के लिए कि सारे रूपों में- चाहे वह मछली का रूप हो चाहे कछुए का, सभी रूपों में भगवान ज्यों-के-त्यो बने रहते हैं। एक ही भगवान अलग-अलग रूप में आते रहते हैं।

वे अलग-अलग रूप में आते हैं- कभी मछली के रूप में आते हैं, कभी कछुए के रूप में, तो कभी वराह के रूप में।

लेकिन हर रूप में- ‘हरि जैसे का तैसा’, वे ज्यों-के-त्यों रहते हैं।

इसलिए कहा – ‘नमः कारण सूकराय’ यह वेदान्त की बात है।

रुपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां
दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम्।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम-
स्वाज्यं दृशि त्वङ्घ्रिषु चातुर्होत्रम्।।

देव! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है। इसकी त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घृत तथा चारों चरणों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा- इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं।

स्रुक्त्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयो-
रिडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे।
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते
यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम्।।

ईश! आपकी थूथनी (मुख के अग्रभाग) में स्त्रुक् है, नासिका-छिद्रों में स्रुवा है, उदार में इडा (यज्ञीय भक्षण पात्र) है, कानों में चमस है, मुख में प्राशित्र (ब्रह्म भाग पात्र) है और कण्ठछिद्र में ग्रह (सोमपात्र) है। भगवन्! आपका जो चबाना है, वही अग्निहोत्र है।

दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं
त्वं प्रायणीदयनीयोद्रंष्टः।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः
सभ्यावसथ्यं चितयो$सवो हि ते।।

बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरूप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ) हैं; दोनों दाढ़ें प्रायणीय (दीक्षा के बाद की इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्ति की इष्टि हैं; जिह्वा प्रवर्ग्य (प्रत्येक उपसद के पूर्व किया जाने वला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होम रहित अग्नि) और आवसभ्य (औपासनाग्नि) हैं तथा प्राण चिति (इष्ट का चयन) हैं।

सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः
संस्थाविभेदास्तव देव धातवः।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि-
स्तवं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः।।

देव! आपका वीर्य सोम है; आसन (बैठना) प्रातःसवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नाम की सात संस्थाएँ हैं तथा शरीर की सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित याग) और क्रतु (सोमरहित याग) रूप है। यज्ञानुष्ठानरूप इष्टियाँ आपके अंगों को मिलाये रखने वाली मांसपेशियाँ हैं।

नमो नमस्ते$खिलमन्त्रदेवता-
द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने।
वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित-
ज्ञानाय विद्यागुरवे नमो नमः।।

समस्त मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमसकर है। वैराग्य, भक्ति और मन की एकाग्रता से जिस ज्ञान का अनुभव होता है, वह आपका स्वरूप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु है; आपको पुनः-पुनः प्रणाम है।

द्रंष्टाग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता
विराजते भूधर भूः सभूधरा।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता
मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी।।

पृथ्वी को धारण करने वाले भगवन्! आपकी दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वन में से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो।

त्रयीमयं रुपमिदं च सौकरं
भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते।
चकास्ति श्रृङ्गोढघनेन भूयसा
कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः।।

आपके दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरों पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है।

संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां
लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वया
यस्यां स्वतेजो$ग्निमिवारणावधाः।।

नाथ! चराचर जीवों के सुखपूर्वक रहने के लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वी को जल पर स्थापित कीजिये। आप जगत् के पिता हैं और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारण शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है। हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं।

कः श्रृद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो
रसां गताया भुव उद्विबर्हणम्।
न विस्मयो$सौ त्वयि विश्वविस्मये
यो माययेदं ससृजे$तिविस्मये।।

प्रभो! रसातल में डूबी हुई इस पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किंतु आप तो सम्पूर्ण आश्चर्यों के आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपने ही तो अपनी माया से इस अत्याश्चार्यमय विश्व की रचना की।

विधुन्वता वेदमयं निजं वपु-
र्जनस्तपः सत्यनिवासिनो वयम्।
सटाशिखोद्धूतशिवाम्बुबिन्दुभि-
र्विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः।।

जब आप अपने वेदमय विग्रह को हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदन के बालों से झरती हुई शीतल बूँदें गिरती हैं। ईश! उनसे भीगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोक में रहने वाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं।

स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते
यः कर्मणां पारमपारकर्मणः।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं
विश्वं समस्तं भगवन् विधेहि शम्।।

जो पुरुष आपके कर्मों का पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आपके कर्मों का कोई पार ही नहीं है। आपकी योगमाया के सात्वादि गुणों से यह सारा जगत् मोहित हो रहा है। भगवन्! आप इसका कल्याण कीजिये।

उन ब्रह्मवादी मुनियों के इस प्रकार स्तुति करने पर सबकी रक्षा करने वाले वराह भगवान् अपने खुरों से जल को स्तम्भित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया। इस प्रकार रसातल से लीलापूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जल पर रखकर वे विष्वक्सेन प्रजापति भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये।

तो भगवान वराह रूप में आते हैं और पृथ्वी का उद्धार करते है, क्योंकि इस कार्य के लिए योग्य रूप वही है।

लाभ से लोभ और लोभ से पाप बढ़ता है।
पाप के बढ़ने से धरती रसातल मे जाता है।
धरती अर्थात् मानव समाज दुःख रुपी रसातल मे जाता है

हिरण्याक्ष का अर्थ है —
संग्रह वृत्ति।

हिरण्यकशिपु का अर्थ है—
भोग वृत्ति।

हिरण्याक्ष ने बहुत एकत्रित किया , अर्थात धरती को चुरा कर रसातल मे छिपा दिया ।

हिरण्यकशिपु ने बहुत कुछ उपभोग किया

अर्थात् स्वर्गलोक से नागलोक तक सबको परेशान किया अमरता प्राप्त करने का प्रयास किया ।

भोग बढ़ता है तो पाप बढ़ता है । जबसे लोग मानने लगे है कि रुपये पैसे से ही सुख मिलता है , तब से जगत में पाप बढ़ गया है , केवल धन से सुख नहीं मिलता।

हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु लोभ के ही अवतार है।

जिन्हें मारने हेतु भगवान को वाराह एवं नृसिंह दो अवतार लेना पड़ा क्योंकि लोभ को पराजित करना बड़ा दुष्कर है।
जबकि काम अर्थात रावण एवं कुम्भकर्ण , तथा क्रोध अर्थात शिशुपाल एवं दन्तवक्त्र के वध हेतु एक एक अवतार राम एवं कृष्ण लेना पड़ा ।

वृद्धावस्था मे तो कई लोगो को ज्ञान हो जाता किन्तु जो जवानी मे सयाना बन जाय वही सच्चा सयाना है ।

शक्ति क्षीण होने पर काम को जीतना कौन सी बड़ी बात है?

कोई कहना न माने ही नही तो बूढ़े का क्रोध मिटे तो क्या आश्चर्य ?
कहा गया है —
अशक्ते परे साधुना “

लोभ तो बृद्धावस्था में भी नहीं छूटता ।
सत्कर्म मेँ विघ्नकर्ता लोभ है , अतः सन्तोष द्वारा उसे मारना चाहिए।

लोभ सन्तोष से ही मरता है ।

अतः—
“जाही बिधि राखे राम. वाही बिधि रहिए”

लोभ के प्रसार से पृथ्वी दुःखरुपी सागर में डूब गयी थी . तब भगवान ने वाराह अवतार ग्रहण करके पृथ्वी का उद्धार किया।
वराह भगवान संतोष के अवतार हैं ।

वराह –
वर+अह ,

वर अर्थात श्रेष्ठ ,
अह का अर्थ है दिवस।

कौन सा दिवस श्रेष्ठ है ?

जिस दिन हमारे हाथो कोई सत्कर्म हो जाय वही दिन श्रेष्ठ है। जिस कार्य से प्रभू प्रसन्न हों , वही सत्कर्म है।
सत्कर्म को ही यज्ञ कहा जाता है।
समुद्र में डूबी प्रथ्वी को वराह भगवान ने बाहर तो निकाला , किन्तु अपने पास न रखकर मनु को अर्थात् मनुष्यों को सौंप दिया।
जो कुछ अपने हाथो मे आये उसे जरुरत मन्दों दिया जाय यही सन्तोष है।