पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने चीड़ को कहा है खेतों का दुश्मन जिनसे बढ़ रही है वनाग्नि
देहरादून : उत्तराखंड में हर साल जंगलों में आग लगने जैसे मामले बढ़ रहे है, जिससे कई हेक्टेयर जंगल राख होते जा रहे है, जिनके साथ जनहानि, वन्यजीव, जड़ी बूटी और कई पेड़ पौधे नष्ट होते जा रहे है. जिनका सबसे बड़ा कारण है चीड़ के जंगल यानी स्थनीय भाषा में कहें तो “सालुक बोट”…सालुक का मलतब चीड बोट का मतलब पेड़. मतलब चीड़ का पेड़. अब इसके पत्ते जिसे पिरूल कहते हैं वह गिरता है तो जंगल को अपने आगोश में ले लेता है..ऐसे में कहीं चिंगारी लग गयी, गिर गयी या लगा दी गयी आग तो समझो हेक्टेयर के हेक्टयर जंगल राख हो जाते हैं. ऐसे में पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने दृष्टि डाली है कैसे वनाग्नि को कण्ट्रोल किया जाए ? कैसे चीड़ के पेड़ को नष्ट किया जाये ? या कहें इसको फैलने से रोका जाए, रावत स्थानीय समस्याओं को अच्छी तरह समझते हैं उनके सुझाव भी काफी अच्छे होते हैं…सरकार को सुझावों पर गौर करना चाहिए…पढ़िए उनके शब्द ….
जंगलों की आग को लेकर सुप्रीम कोर्ट का संज्ञान लेना ही अत्यधिक महत्वपूर्ण है, फटकार तो फटकार है। मैं यह भी नहीं कहूंगा कि जंगलों की आग के लिए केवल आज की सरकार दोषी है। जंगलों के प्रति हमारा जो दृष्टिगत परिवर्तन होना चाहिए था, वह हमने नहीं किया। हमारी सरकार ने इस परिवर्तन को वनों से संबंधित कई क्षेत्रों में प्रारंभ किया, कुछ क्षेत्रों में आज भी उसके अच्छे परिणाम दिखाई दे रहे हैं, लेकिन कुछ पहलें जो हमने प्रारंभ की थी उनको आने वाली सरकारों ने आगे नहीं बढ़ाया। खैर इस समय विषय वस्तु को मैं केवल वनों की आग और चीड़ की पत्ती तक सीमित करना चाहूंगा, क्योंकि इस समय लोगों के मन-मस्तिष्क में चीड़ की पत्ती, आग के एक बड़े कारक के रूप में है। चीड़ की पत्ती के दीर्घकालिक उपयोग आईआईटी द्वारा इस क्षेत्र में किये जा रहे अनुसंधान का मैं स्वागत करता हूं और मैं सरकार द्वारा चीड़ की पत्तियों को इकट्ठा करने की पारिश्रमिक को ₹10 प्रति किलो से बढ़ाकर ₹50 प्रति किलो किए जाने का भी स्वागत करता हूं और यदि मनरेगा एक्टिविटीज में जंगल में आद्रता पैदा करने के कार्यों को भी सम्मिलित कर लिया जाता है तो मैं उसका भी स्वागत करूंगा। क्योंकि आद्रता को निरंतर बढ़ाना जंगलों में आग रोकने और जंगलों के स्वाभाविक विकास के लिए आवश्यक है। मैं चीड़ की पत्तियों को लेकर उठाये जाने वाले कुछ तत्कालिक कदमों का उल्लेख करना चाहूंगा। पहला कदम है, चीड़ के वृक्षों की शाखाओं की हर वर्ष अनिवार्य कांट-छांट करना और लौपिंग के बाद जो लकड़ी नीचे गिरे उसका डिस्पोजल करें ताकि जब चीड़ की पत्तियों का गिरने का समय आता है तो उस समय तक वृक्ष पर बहुत सीमित मात्रा में चीड़ की पत्तियां रह जाएं। दूसरा कदम है, चीड़ के फल, यूं उसके फलों से निकलने वाले दाम जो बीज होता है, वह चिलगोजे से भी ज्यादा स्वादिष्ट होता है। मगर उसके फलों के जो ठीठे हैं उनको भी एकत्र करने के लिए और बल्कि पेड़ों से ही तोड़ करके एकत्र करने के लिए प्रति किलो के हिसाब से कुछ पारिश्रमिक तय किया जाना चाहिए ताकि पिरूल/पत्ते इकट्ठा करने के साथ ठीठे (चीड़ का फल) इकट्ठा करना भी आवश्यक माना जाए, क्योंकि चीड़ के फैलाव में इन ठीठों का बहुत बड़ा योगदान है, इनके बीज निकलकर के हवा में तैरते हुये बहुत दूर-दूर तक जाता है और दूसरा आग लगने पर आग के फैलाव को बढ़ाने में इन ठीठों/फलों का बड़ा योगदान है, चीड़ के फल को ठीठा कहा जाता है। तीसरा कदम, जिस पर राज्य सरकार को विधि विशेषज्ञों से भी परामर्श करना चाहिए, वह कदम है कि नाप खेतों में जो आज चीड़ का फैलाव हो गया है, जिससे चीड़ अपने साथ आग को हमारे घर-आंगन तक लेकर के चला आया है तो हमें चीड़ की पौंध को ही बर्मिन घोषित कर दें, उसको खेती का शत्रु घोषित कर दें और इस हेतु विधानसभा में कानून पारित कर लें ताकि नाप खेतों में जहां-जहां चीड़ है, उस चीड़ का उन्मूलन हो सके। चीड़ के पत्ते इकट्ठा करने के साथ उपरोक्त कदमों को उठाये जाने से इन वनाग्नि का फैलाव लगभग आधा नियंत्रित हो जाएगा और यदि हम चीड़ वाले जितने ढाल हैं उनमें अनिवार्य रूप से ट्रेंचेज बना दें ताकि बरसात में पानी उन ट्रेंचेज में रूक सके उससे जंगलों में आद्रता बढ़ जायेगी और आद्रता के साथ छोटी झाड़ियां व घास उगनी प्रारंभ हो जाय जो आज चीड़ की पत्तियों के कारण नहीं हो रही है, तो आप यह मानकर के चलिए कि आग की घटनाएं उत्तराखंड में आधे से कम हो जाएंगी, बल्कि और कम हो जाएंगी।