न्याय की भाषा: क्या अदालतों में हिंदी की वेदना को कोई सुनने को तैयार है?

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न्याय की शिला पर हिंदी की वेदना-

पार्थसारथि थपलियाल 

हिंदी केवल भाषा नहीं, यह न्याय तक पहुँच का सेतु है। संविधान सभा ने 14 सितंबर,1949 को अनुच्छेद 343 (1) के अंतर्गत हिंदी को भारत संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था। लक्ष्य रखा था कि संविधान लागू होने के दिन से 15 वर्षों के अंदर हिंदी को देश में पूर्णतः राजभाषा के रूप में काम में लाया जाएगा।  संविधान को अंगीकार किए 76 वर्ष हो गए हैं, किंतु न्यायालयों और पुलिस व्यवस्था में आज भी विदेशी शब्दों का बोलबाला है। जब तक अदालत की भाषा जनता की भाषा नहीं बनेगी, तब तक न्याय का लोकतंत्रीकरण अधूरा है।

वास्तविकता यह है कि अदालतों और पुलिस व्यवस्था में अब भी अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेज़ी के जटिल शब्दों का बोलबाला है। इन शब्दों की अपरिचितता आम आदमी को न केवल भ्रमित करती है, बल्कि कई बार न्याय की प्रक्रिया को ही प्रभावित कर देती है।हाल ही की कुछ घटनाएँ इस बात को रेखांकित करती हैं। चेन्नई की एक अदालत में गवाह का बयान केवल हिंदी में था, जिसे स्थानीय न्यायालय ने तमिल या अंग्रेज़ी के अभाव में मान्य ही नहीं माना। नतीजा यह हुआ कि ड्रग्स का आरोपी बरी हो गया। इसी तरह, बॉम्बे हाई कोर्ट में मालेगाँव के एक मामले में आरोपी उर्दू जानता था जबकि गवाहों की भाषा मराठी थी। अदालत ने माना कि आरोपी को अपनी रक्षा का अवसर ही नहीं मिला और उसकी हिरासत आदेश रद्द कर दी। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि भाषा का ज्ञान न होना सीधे-सीधे न्याय को प्रभावित कर सकता है।

यह विडंबना है कि जिन शब्दों का सीधा और सरल हिंदी पर्याय मौजूद है, वहां भी कठिन और विदेशी शब्दों का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए अरबी भाषा के शब्द – अदालत, पेशी, हलफनामा, गवाह, जुर्म, जुर्माना फारसी भाषा के शब्द- दारोगा, मुचलका ‘इस्तग़ासा, इकरारनामा, वकालतनामा, बयानात, दरबार, दर्ज, दराज, बरामदगी, हवालात,। उर्दू भाषा के शब्द- ‘जिरह, गवाहखाना, ‘हलफ़नामा’ रिहाई, फर्द, तहकीकात, सुपुर्दगी, मुकद्दमा, पेशकार, खारिज़ जैसे शब्द वर्तमान समय के सामान्य नागरिक को कठिन लगते हैं। इसी तरह अंग्रेजी के शब्द- Bail, Affidavit, Apeal, Evidence, Summon, Witness, warrant, Decree, Stay order, Contempt of Court, Sentence, Costody, Conviction, Accused आदि अनेक शब्द हैं जो आम आदमी नहीं जनता है।    भाषाई अल्पज्ञता के कारण कई बार तो स्थिति हास्यास्पद हो जाती है- एक बार कोर्ट में एक गवाह ने ‘जिरह’ को गाय-भैंस की खाल उतारने से जोड़ लिया, जबकि कानूनी अर्थ में यह केवल सवाल-जवाब है।

न्यायालयों में हिंदी में न्यायिक काम न होने के पीछे अन्य कारणों के अलावा मुख्य कारण है, अनुच्छेद 348 (क) वाला प्रावधान। इसके अनुसार उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्चन्यालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी में होंगी। इस अनुच्छेद में यह व्यवस्था भी है कि संसद या विधान मंडलों द्वारा पारित अधिनियमों, नियमों, विनियमों, आदेशों और उपविधियों के लिए प्राधिकृत पाठ भाषा अंग्रेजी भाषा में होंगे।

भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है, यह न्याय तक पहुँच का पुल भी है। यदि यह पुल ही कमजोर होगा तो न्याय अधूरा रह जाएगा। संविधान ने हमें राजभाषा का अधिकार दिया है, अब आवश्यकता है कि न्यायपालिका इसे व्यवहारिक रूप से आत्मसात करे। न्यायालयों में भाषाई समस्या का बड़ा कारण यह है कि प्रदेशों में स्थित उच्चन्यायालयों विशेषकर केरल, कर्नाटक, तमिलनाड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, और कलकत्ता (उच्चन्यालयों) के कार्यक्षेत्र में स्थानीय भाषाओं में न्याय प्राप्त करने की मांगे बढ़ेंगी.

कुछ हद तक बात सही भी है,  राज्यों में अलग अलग भाषाएं हैं, इस कारण भाषाई एकरूपता नहीं हो सकती है। तथ्य यह भी है अंग्रेजों के समय से चली भाषाई परंपरा को तोड़ने का प्रयास कोई नहीं करना चाहता है। हिंदी भाषी क्षेत्र के  कुछ न्यायालयों में हिंदी में बहस करने और याचिका प्राप्त करने का काम शुरू हुआ है, लेकिन विडंबना ही है कि न्याय के  फैसले आज भी हिंदी में नहीं होते। प्रश्न यह है कि जब इनका सरल हिंदी रूप मौजूद है तो क्यों न इन्हें अधिकाधिक प्रयोग में लाया जाए? भाषा का उद्देश्य संवाद को आसान बनाना है, दुरूह बनाना नहीं।

समाधान स्पष्ट है। अदालतों में प्रयुक्त सभी प्रमुख कानूनी शब्दों की जनसुलभ शब्दावली तैयार की जाए, जिसे वादी, प्रतिवादी, गवाह और आम नागरिक आसानी से समझ सकें। साथ ही, वकीलों और न्यायाधीशों को भी प्रशिक्षण दिया जाए कि वे सुनवाई के दौरान कठिन शब्दों के साथ-साथ उसका सरल रूप भी समझाएँ। भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है, यह न्याय तक पहुँच का पुल भी है। यदि यह पुल ही कमजोर होगा तो न्याय अधूरा रह जाएगा। संविधान ने हमें राजभाषा का अधिकार दिया है, अब आवश्यकता है कि न्यायपालिका इसे व्यवहारिक रूप से आत्मसात करे। न्यायालयों में भाषाई समस्या का बड़ा कारण यह है कि प्रदेशों में स्थित उच्चन्यालयों विशेषकर केरल, कर्नाटक, तमिलनाड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, और कलकत्ता उच्चन्यालयों के कार्यक्षेत्र में स्थानीय भाषाओं में न्याय प्राप्त करने की मांगे बढ़ेंगी। एक प्रकार से यह अच्छा होगा कि लोग अपनी भाषा में समझ पाएंगे कि न्याय हुआ है या निर्णय। इन तमाम समस्याओं के होते हुए भी हिंदी के लिए द्वार खोलने के लिए कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिए। न्यायप्रिय राजा विक्रमादित्य की न्याय शिला पर इस दौर में हिंदी की वेदना कौन समझेगा? संकल्प दृढ़ हो तो रास्ते स्वयं निकल आते हैं। नदियां सागर से मिलने के लिए सड़कें नहीं बनाती हैं।

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