गांव में प्रधान पद के लिए अधिक प्रत्याशी, क्या यह लोकतंत्र की मजबूती का प्रतीक है?

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रायवाला। उत्तराखंड में पंचायत चुनाव का माहौल गर्म हो चुका है और कई गांवों में प्रधान पद के लिए प्रत्याशियों की संख्या बहुत अधिक देखी जा रही है। कुछ ग्राम सभाओं में यह संख्या दहाई अंक तक पहुँच चुकी है, जहाँ एक ही पद के लिए 10 से 14 उम्मीदवार मैदान में हैं। इस बढ़ती प्रतिस्पर्धा को लेकर सवाल उठता है क्या यह लोकतंत्र की सशक्तता का संकेत है, या समाज में विभाजन और गुटबाजी को बढ़ावा दे सकता है?

लोकतंत्र की मजबूती और जनभागीदारी

राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि ज्यादा प्रत्याशी होना यह दर्शाता है कि गांव के लोग अब अपने नेताओं को चुनने में अधिक सक्रिय हो गए हैं। जब अधिक उम्मीदवार चुनावी मैदान में होते हैं, तो यह लोकतंत्र की सही प्रक्रिया के लिए एक शुभ संकेत है। यह दिखाता है कि ग्रामीण अब केवल मतदान नहीं करते, बल्कि वे गांव के नेतृत्व में अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं। इससे गांवों में नेतृत्व की नई संभावनाएं सामने आती हैं और विकास की दिशा में नए रास्ते खुल सकते हैं।

विभाजन और वोटों का बंटवारा

हालांकि, इस स्थिति के कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं। जब एक ही पद के लिए इतने सारे प्रत्याशी होते हैं, तो चुनावी माहौल में खींचतान और गुटबाजी की संभावना बढ़ जाती है। इससे समाज में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जो आगे चलकर सामाजिक सौहार्द को नुकसान पहुँचा सकती है। साथ ही, अधिक प्रत्याशियों के कारण वोटों का विभाजन भी हो सकता है, जिससे कुछ कमज़ोर प्रत्याशी जीत सकते हैं, जो गांव के विकास में उतनी सक्रियता नहीं दिखा पाते।

पंचायत चुनाव में सामूहिक सोच की आवश्यकता

इस स्थिति को देखते हुए निवर्तमान ब्लॉक प्रमुख भगवान सिंह पोखरियाल ने सभी प्रत्याशियों से अपील की है कि वे चुनाव को शांति और सौहार्दपूर्ण तरीके से लड़े। उन्होंने कहा, “चुनाव का उद्देश्य किसी को हराना नहीं, बल्कि विकास की दिशा में कदम बढ़ाना है। हमें चुनावी प्रक्रिया में भाईचारे और सकारात्मकता को बनाए रखना चाहिए।”

नकारात्मक पक्ष (Negative Points):

1. गांव में सामाजिक विभाजन और तनाव बढ़ता है: चुनावी दौड़ में कई बार रिश्तेदार, दोस्त और पड़ोसी आमने-सामने खड़े हो जाते हैं। इससे पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में दरार आ सकती है।

2. छोटी-छोटी बातों पर विवाद: चुनावी प्रचार के दौरान आपसी मतभेद बढ़ते हैं, जिससे गांव में झगड़े और विवाद की आशंका रहती है। कभी-कभी ये चुनाव के बाद भी सालों तक चले आते हैं।

3. बाहरी हस्तक्षेप बढ़ता है: ज़्यादा प्रत्याशियों के बीच मुकाबला कड़ा होने पर कई बार बाहरी राजनीतिक दबाव या पैसे का इस्तेमाल होता है, जिससे निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं।

4. वोट बैंक की राजनीति हावी हो जाती है: प्रत्याशी समाज, जाति या क्षेत्र विशेष के वोट पाने के लिए ध्रुवीकरण करने लगते हैं। इससे गांव की एकता को नुकसान पहुंचता है।

5. विकास का मुद्दा पीछे छूट जाता है: जब फोकस एक-दूसरे को हराने पर होता है, तो गांव की ज़रूरतों और विकास के मुद्दों पर चर्चा कम हो जाती है। चुनाव “विकास” के बजाय “व्यक्तिगत टकराव” बन जाता है।

6. कमज़ोर नेतृत्व उभर कर आता है: वोटों का अधिक बंटवारा होने से संभव है कि कोई ऐसा प्रत्याशी चुन लिया जाए जिसे बहुत कम लोगों का समर्थन प्राप्त हो। इससे गांव को मजबूत नेतृत्व नहीं मिल पाता।

7. जनता में भ्रम की स्थिति: बहुत सारे नाम और चेहरे होने से मतदाता कन्फ्यूज हो जाते हैं कि किसे वोट दें। इससे जागरूक मतदान में गिरावट आ सकती है।

निष्कर्ष

पंचायत चुनाव में प्रधान पद के लिए बड़ी संख्या में प्रत्याशी उतरना एक ओर जहां लोकतंत्र की जीवंतता और जनजागरण का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर यह स्थिति गुटबाजी, वोटों के विभाजन, और सामाजिक तनाव का कारण भी बन सकती है।

यदि यह प्रतिस्पर्धा विकास, जनसेवा, और भाईचारे के आधार पर हो, तो यह गांव के लिए नए नेतृत्व और बेहतर भविष्य का मार्ग खोल सकती है। लेकिन अगर चुनाव का उद्देश्य सिर्फ व्यक्तिगत स्वार्थ, सत्ता की लालसा या एक-दूसरे को हराना बन जाए, तो इसका असर समाज की एकता पर पड़ता है।

इसलिए ज़रूरी है कि प्रत्याशी अपनी नीयत साफ रखें, वोटर जागरूक होकर सही प्रतिनिधि चुनें और चुनाव को विकास का माध्यम बनाएं, न कि विवाद का कारण। सही सोच और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ लड़ी गई चुनावी लड़ाई ही असल लोकतंत्र की पहचान होती है।

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