कभी सादगी और अपनापन था पहचान, अब नशे, बेरोजगारी और पलायन से जूझ रहा है उत्तराखंड।
देहरादून : आज उत्तराखंड अपनी स्थापना के 25 वर्ष पूरे कर चुका है। वर्ष 2000 में जब यह राज्य उत्तर प्रदेश से अलग होकर अस्तित्व में आया था, तब हर उत्तराखंडी के दिल में एक सपना था ऐसा राज्य बनाना जो शांति, संस्कृति और प्रकृति का प्रतीक बने।आज जब हम इस सफर के 25 साल पूरे कर रहे हैं, तो यह देखना जरूरी है कि उत्तराखंड पहले कैसा था, अब कहाँ खड़ा है और आगे किस दिशा में जाना चाहिए।
पहले का उत्तराखंड सादगी, अपनापन और प्रकृति से जुड़ाव
उत्तराखंड का पुराना चेहरा एक शांत और आत्मनिर्भर जीवनशैली से भरा था। यहाँ के लोग मेहनती, सादे और ईमानदार थे। गाँवों में लोग खेती और पशुपालन से जीवन यापन करते थे। हर व्यक्ति का जुड़ाव मिट्टी से था और हर गाँव में सामूहिकता की भावना गहरी थी। लोकगीत, लोकनृत्य और मेले-त्योहार उत्तराखंड की पहचान थे। पहाड़ों की ठंडी हवा, स्वच्छ जल और शांत वातावरण जीवन को सुखद बनाते थे।अपराध, प्रदूषण, नशाखोरी या बेरोजगारी जैसी समस्याएँ लगभग न के बराबर थीं। समाज एक परिवार की तरह चलता था और लोग अपने परंपरागत मूल्यों पर गर्व करते थे।
बदलता उत्तराखंड विकास की रफ्तार और नई चुनौतियाँ
राज्य बनने के बाद उत्तराखंड ने विकास के क्षेत्र में बड़ी छलांग लगाई। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और पर्यटन के क्षेत्र में राज्य ने उल्लेखनीय प्रगति की। चारधाम यात्रा को सुगम बनाने के लिए सड़कें और सुरंगें बनीं, औद्योगिक क्षेत्रों का विस्तार हुआ, अस्पताल जैसे संस्थान खुले, और शहरों में आधुनिक सुविधाएँ बढ़ीं। परंतु इस विकास की रफ्तार के साथ नई समस्याएँ भी सामने आईं। राज्य के कई हिस्सों में नशे की लत, बेरोजगारी, अपराधों में वृद्धि और पर्यावरणीय असंतुलन जैसी चिंताएँ बढ़ीं। जहाँ पहले युवा अपने खेतों में काम करते थे, वहीं अब पलायन बढ़ रहा है और गाँव खाली हो रहे हैं। देहरादून, हरिद्वार और हल्द्वानी जैसे शहरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ गया है, जबकि दूरस्थ पहाड़ी इलाकों में बुनियादी सुविधाओं की कमी बनी हुई है।

पर्यावरणीय संकट प्रकृति पर बढ़ता दबाव
उत्तराखंड को देवभूमि इसलिए कहा गया क्योंकि यहाँ की नदियाँ, जंगल और पहाड़ पवित्र माने जाते हैं। लेकिन आज वही प्राकृतिक धरोहर खतरे में है। विकास कार्यों के चलते जंगलों की कटाई, नदियों का प्रदूषण और ग्लेशियरों का पिघलना बढ़ गया है। पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन और आपदाओं की घटनाएँ बढ़ी हैं। अगर यही स्थिति जारी रही, तो आने वाले वर्षों में उत्तराखंड का पारिस्थितिक संतुलन खतरे में पड़ सकता है।
नई पीढ़ी की जिम्मेदारी आधुनिकता के साथ संस्कृति का संतुलन
उत्तराखंड की युवा पीढ़ी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है आधुनिकता और संस्कृति के बीच संतुलन बनाना। आज के युवा को यह समझना होगा कि विकास का अर्थ केवल बड़े शहरों का निर्माण या उद्योगों की स्थापना नहीं है। विकास का मतलब है रोजगार के अवसर, स्वच्छ पर्यावरण, सुरक्षित समाज और सांस्कृतिक संरक्षण। युवाओं को चाहिए कि वे नशे और गलत आदतों से दूर रहें, शिक्षा और स्वरोजगार के माध्यम से अपनी दिशा तय करें, और गाँवों को पुनः जीवंत बनाने में योगदान दें।हर युवा अगर अपने गाँव, अपने पहाड़ की जिम्मेदारी ले, तो उत्तराखंड फिर से अपने पुराने गौरव को प्राप्त कर सकता है।

उत्तराखंड सरकार ने बीते वर्षों में कई महत्वपूर्ण योजनाएँ शुरू की हैं स्वरोजगार, महिला सशक्तिकरण, पर्यटन विकास और आधारभूत ढाँचे को मजबूत करने के लिए कई प्रयास हुए हैं।परंतु इन योजनाओं का असर तभी दिखाई देगा जब समाज भी सहयोग करेगा। हर नागरिक को यह समझना होगा कि विकास केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हमारी भी है। गाँवों को फिर से बसाने, खेती को बढ़ावा देने और स्थानीय उत्पादों को प्रोत्साहन देने से राज्य को मजबूती मिलेगी। साथ ही, पहाड़ी संस्कृति, लोककला और भाषा को बचाने के प्रयास भी जरूरी हैं ताकि उत्तराखंड की पहचान बनी रहे।
भविष्य की राह देवभूमि को फिर से उसी रूप में लौटाना
उत्तराखंड का भविष्य तभी उज्जवल होगा जब विकास, पर्यावरण और संस्कृति के बीच संतुलन कायम रहेगा। हमें ऐसा उत्तराखंड बनाना है जो तकनीकी रूप से आगे हो, लेकिन अपनी आत्मा यानी प्रकृति, संस्कृति और शांति से जुड़ा रहे। भविष्य की नीतियों में गाँवों का पुनर्निर्माण, शिक्षा पर निवेश और युवाओं को स्थानीय स्तर पर अवसर देना सबसे बड़ा कदम होगा।
25 वर्षों का यह सफर उत्तराखंड की मेहनत, संघर्ष और सपनों की कहानी है।अब वक्त है कि हम सब मिलकर इस राज्य को और बेहतर बनाएं। अगर हर नागरिक अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाए, तो उत्तराखंड फिर से वही “शांति और सौंदर्य की देवभूमि” बन सकता है, जिसकी कल्पना 2000 में राज्य के गठन के समय की गई थी।
