गढ़वाल में गुलदार भालू के बढ़ते हमलों से दहशत, ग्रामीणों की दिनचर्या पूरी तरह प्रभावित

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गढ़वाल: पहाड़ी जनजीवन इन दिनों दोहरी चुनौतियों से जूझ रहा है। एक ओर पहाड़ के गांवों में लगातार बढ़ रहे गुलदार और भालू के हमलों ने लोगों की सामान्य दिनचर्या को अस्त-व्यस्त कर दिया है, वहीं दूसरी ओर वन विभाग के पहले तले शहनाइयों की गूंज चर्चा का केंद्र बनी हुई है। प्राकृतिक सौंदर्य के बीच यह मेल जोल और खुशी का माहौल लोगों को पलभर की राहत जरूर दे रहा है, लेकिन जंगली जानवरों की बढ़ती सक्रियता ने ग्रामीणों के माथे पर चिंता की गहरी लकीरें खींच दी हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में पिछले कुछ महीनों से गुलदार और भालू की आवाजाही असामान्य रूप से बढ़ी है। खेतों में काम करने, जंगल से चारा-लकड़ी लाने और बच्चों के स्कूल आने-जाने को लेकर लोगों में भारी भय व्याप्त है। कई गांवों में सूरज ढलते ही लोग घरों से बाहर निकलने तक में हिचकिचा रहे हैं। खेती-बाड़ी पर इसका सीधा असर पड़ा है, जिससे स्थानीय आजीविका भी प्रभावित हो रही है।

लोगों का कहना है कि शाम के बाद जंगल किनारे रहना बेहद जोखिम भरा हो गया है। कई गांवों में तो महिलाएं समूह में ही जंगल जाती हैं, जबकि बच्चे स्कूल जाने के लिए परिजनों का इंतजार करते हैं। ऐसे हालात में पारंपरिक सामाजिक सामंजस्य भी टूटने लगा है। शादी-विवाह या किसी भी सामाजिक आयोजन में रात के कार्यक्रम सीमित कर दिए गए हैं।

वन विभाग की ओर से गश्त बढ़ाने, पिंजरे लगाने और ट्रैकिंग टीमों को सक्रिय रखने की बात कही जा रही है, लेकिन ग्रामीणों का मानना है कि यह प्रयास जमीनी स्तर पर अभी पर्याप्त नहीं दिख रहे। वन्यजीव विशेषज्ञों का मानना है कि मानव-वन्यजीव संघर्ष तब बढ़ता है, जब जंगलों में भोजन की कमी और असंतुलन पैदा होता है या जब बस्तियां तेजी से जंगलों की ओर फैलने लगती हैं।

इधर, वन विभाग के परिसर में आयोजित कार्यक्रमों में शहनाइयों की गूंज और उत्सव का माहौल ग्रामीणों के लिए राहत का छोटा सा क्षण जरूर लाता है, पर असल चुनौती गांवों में लगातार बढ़ रही दहशत को नियंत्रित करने की है। पहाड़ के लोग अब ठोस समाधान और सुरक्षित वातावरण की उम्मीद में सरकार व विभाग की ओर ताक रहे हैं।

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