उत्तराखंड का भू-भाग हर साल 6 मिलीमीटर खिसक रहा, वैज्ञानिकों ने जताई गंभीर चिंता; बढ़ सकता है बड़े भूस्खलनों का खतरा
देहरादून: उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में दर्ज हो रही भू-गर्भीय गतिविधि ने वैज्ञानिकों और आपदा प्रबंधन एजेंसियों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। विशेषज्ञों के अनुसार राज्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रति वर्ष लगभग 6 मिलीमीटर की गति से खिसक रहा है। यह धीमा भू-स्खलन भविष्य में बड़े पैमाने पर भूस्खलन, भूमि धंसाव और क्षेत्रीय अस्थिरता का कारण बन सकता है।
भू-विज्ञानियों का कहना है कि भू-भाग का लगातार सरकना इस बात का संकेत है कि हिमालय क्षेत्र अभी भी अत्यधिक सक्रिय भूगर्भीय अवस्था से गुजर रहा है। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण और कई शोध संस्थानों द्वारा किए गए अध्ययन बताते हैं कि यह खिसकाव मुख्यतः टेक्टॉनिक मूवमेंट, वर्षा आधारित कटाव, भूकंपीय गतिविधियों और पहाड़ों की प्राकृतिक नाजुकता के कारण बढ़ रहा है।

वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि यह प्रवृत्ति इसी प्रकार जारी रही, तो आने वाले वर्षों में पर्वतीय क्षेत्रों में बड़े भूस्खलन की घटनाएं बढ़ सकती हैं। इससे सड़कों, इमारतों, जल परियोजनाओं और पहाड़ी कस्बों पर गंभीर असर पड़ेगा। विशेषज्ञों ने इस स्थिति को “प्राकृतिक चेतावनी” बताते हुए कहा है कि भू-भाग की यह लगातार हलचल भविष्य में बड़े भू-आपदाओं का कारण बन सकती है।
सरकार और आपदा प्रबंधन एजेंसियां इस परिस्थिति पर बारीकी से नजर रख रही हैं। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने संवेदनशील इलाकों में सैटेलाइट-आधारित निगरानी, भूस्खलन अलर्ट सिस्टम और त्वरित प्रतिक्रिया तंत्र को मजबूत करने के निर्देश जारी किए हैं। इसके साथ ही भू-संवेदनशील स्थलों पर निर्माण कार्यों पर नियंत्रण, सुरक्षित पुनर्वास और जिम्मेदार पर्यटन को बढ़ावा देने की सलाह दी गई है।
स्थानीय प्रशासन ने भी पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों से अपील की है कि वे किसी भी असामान्य जमीन दरार, सड़क धंसने या पानी के स्रोतों में अचानक बदलाव जैसे संकेतों की सूचना तुरंत अधिकारियों को दें।
उत्तराखंड जैसे संवेदनशील हिमालयी राज्यों में यह भू-गर्भीय गतिविधि आने वाले समय में आपदा प्रबंधन रणनीतियों के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती बनने जा रही है। वैज्ञानिकों ने सरकार से दीर्घकालिक नीति, मजबूत वैज्ञानिक निगरानी और सतत विकास मॉडल अपनाने की आवश्यकता पर जोर दिया है।
